अभिषेक उपाध्याय। भारत में नक्सलवाद लंबे समय से सुरक्षा और विकास दोनों के लिए चुनौती रहा है। विशेषकर छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और ओड़िशा जैसे राज्यों में यह सक्रिय रहा। पिछले कुछ वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारों की संयुक्त रणनीति, सुरक्षा बलों की सटीक कार्रवाई और स्थानीय विकास कार्यक्रमों ने नक्सलवाद की कमर तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हिंसक घटनाओं में लगातार गिरावट दर्ज की गई है। इससे न केवल नागरिकों की सुरक्षा बेहतर हुई है, बल्कि निवेश और विकास परियोजनाओं को भी गति मिली है। सुरक्षा बलों की मोर्चेबंदी, तकनीकी निगरानी और लोकल पुलिस की सक्रियता ने नक्सली नेटवर्क को कमजोर किया है। साथ ही, ग्राम स्तर पर सुरक्षा और सामाजिक विकास के कार्यक्रम—जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और रोजगार—ने लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि नक्सलवाद को केवल सुरक्षा बलों के बल पर समाप्त करना संभव नहीं है। इसके लिए सामाजिक और आर्थिक समावेशिता, युवाओं के लिए रोजगार के अवसर और स्थानीय नेतृत्व को सशक्त करना जरूरी है। इन उपायों से न केवल नक्सलियों के लिए अपनाई गई हिंसा का विकल्प सीमित होता है, बल्कि शांति और स्थायित्व की संभावनाएँ भी बढ़ती हैं।
हालांकि चुनौतियाँ अभी भी मौजूद हैं। कुछ क्षेत्रों में नक्सली गतिविधियाँ जारी हैं और विकास के लाभ सभी तक नहीं पहुँच पाए हैं। लेकिन केंद्र और राज्य की योजनाओं की निरंतर निगरानी और सुधार से यह आशा बढ़ी है कि नक्सलवाद जल्द ही सीमित और नियंत्रित हो जाएगा।
निष्कर्षतः, नक्सलवाद की टूटती कमर से भारत के उन हिस्सों में शांति की उम्मीदें जग गई हैं, जहां दशकों तक हिंसा और भय का शासन था। यदि विकास और सुरक्षा का संतुलन बनाए रखा गया, तो आने वाले वर्षों में नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में स्थायी शांति और समृद्धि संभव हो सकेगी।